Saturday, July 4, 2009

बदलता वक़्त

साकी वक़्त बदल रहा है
हवायें भी रुख़ मोड़ रही हैं
हक़ीक़त थी कभी सफ़र-ए-काफिला
अब तो परछाईयाँ भी साथ छोड़ रहीं हैं

बारिश का पहली फुहार

बारिश का पहली फुहार
मदमस्त कर गयी पागल मन को
जीने की एक आस जगाई
एक नीरस उजड़े उपवन को

गली पर खड़ा उस कोने में
प्यासा बरगद राह देख रहा था
पूछा उसने गुज़रते पाथिक से
आ रहा है क्या कोई पीछे
मानो जीवन फूँक गयी हो
पगलाई सी बस चूक गयी हो
पथिक की एक निर्लज 'हाँ'

अचंभित हुआ एक नादान शावक
समझ न आया ये बदलाव
छोड़ अपनी अल्हड़ अठखेलियाँ
ढूंढी कोई पेड़ों की छांव
वर्षा ऋतु के बदलते रंग ढंग
भ्रमित हुआ अनेकों बार
आँख मून्दे किया स्वागत
लगा प्रक्रति का नया आविष्कार

युगों बीत गये हों जैसे
व्याकुल थी सागर की गोद
सूख गयीं थी बोझिल आँखें
निष्फल हुए प्रयास और ज़ोर
पर अब आ गयी मिलन की बेला
दिखे सहचर आते इसी ओर
बूँद बूँद हुई प्रफुल्लित
लगा मिल गया एक नया मोक्ष

मतवाला झूम उठा जग सारा
जैसे नया उदय हुआ हो
महका प्रक्रति का दामन
पावन हुआ कण कण का मन
पुष्पों ने किए शत प्रणाम
शाखाओं ने नमन हज़ार
बिजली ने किया शंखनाद
और इन्द्र देव की जयकार